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मौसम की तब्दीली कहिये या पतझड़ का बहाना था
पेड़ को तो बस पीले पत्तों से छुटकारा पाना था
रेशा-रेशा हो तेरी सूरत पढ़ कर अब बिखरी है मेरे आँगन मेंमुझको सोच लिया करते थे लोग रिश्तों की वो चादर जिसका वो ताना मैं बाना भी था इक वक़्त कभी ऐसा भी एक ज़माना था
रेशा-रेशा होकर अब बिखरी है मेरे आँगन में रिश्तों की वो चादर जिसका वो ताना, मैं बाना था  बादल,बरखा, जाम, सुराही, उनकी यादें, तन्हाई तुझको तो ऐ मेरी तौबा ! शाम ढले मर जाना था उन गलियों में भी अब तो बेगानेपन के डेरे हैं जिन गलियों में ‘अंबर’ जी अक्सर आना जाना था
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