|रचनाकार=पं. राजेराम संगीताचार्य
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पं. राजेराम जी का जन्म 01 जनवरी, सन 1950 ई0 (वार-रविवार, तिथि-त्रयोदशी, मास-पोष, शुक्ल पक्ष- बदी, विक्रम-संवत 2006) को गांव- लोहारी जाटू, जिला- भिवानी (हरियाणा) के एक मध्यम वर्गीय 'गौड़ ब्राह्मण परिवार' मे हुआ। इनके पिता का नाम पं. तेजराम शर्मा व माता का नाम ज्ञान देवी था, जो 30 एकड़ जमीन के मालिक थे और इसी भूमि पर कृषि करके अपने समस्त परिवार का भरण-पोषण करते थे। ये चार भाई थे- जिनमे बड़े का नाम औमप्रकाश, सत्यनारायण, राजेराम, कृष्ण जी। पं. राजेराम 21-22 वर्ष की उम्र में गांव खरक कलां.भिवानी में श्रीमती भतेरी देवी के साथ वैवाहिक बंधन मे बंधकर उन्होंने तीन लडको को जन्म दिया। फिर जब पंडित राजेराम कुछ पढने योग्य हुए तो कुछ समय स्कुल मे भेजकर बाद मे पशुचारण का कार्य सौंपा गया, परन्तु गीत-संगीत की लालसा उनमे बचपन से ही थी। इसलिए ग्वालों-पाळियों के साथ-साथ घूमते हुए, उनके मुखाश्रित से हुए गीतों की पंक्तियों को गुन-गुनाकर समय यापन करते-रहते थे। उसके बाद 10-12 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें कर्णरस एवं गीत श्रवण की ऐसी ललक लगी कि अपने गाँव और आसपास की तो बात ही क्या, वे कोसों-मीलों दूर जाकर भी सांगी-भजनियों के कर्ण-रस द्वारा उनके कंठित भावों का आनंद को अपने अन्दर समाहित करते रहे। फिर उम्र बढ़ने के साथ-साथ सांग के प्रति उनकी आसक्त भावना मे इस प्रकार वृद्धि हुई कि सांग देखने के लिए बिना बताएं और लड़-झगड़कर कई-कई दिनों तक घर से गायब रहने लगे। इस प्रकार सांग से लालायित उनका कुछ जीवन अपने जन्मभूमि से अलगाव मे ही रहा। इन्ही दिनों फिर पंडित राजेराम जी के जीवन मे एक नए अध्याय के अंकुर अंकुरित हुए। सौभाग्य एवं सयोंगवश फिर किशोरायु राजेराम 14 वर्ष की आयु मे सन 1964 मे एक दिन सुबह-सुबह ही बिना बताये घर से सुर्यकवि पंडित लख्मीचंद के परम शिष्य सुप्रसिद्ध सांगी पंडित मांगेराम का सांग सुनने के लिए गाँव-पांणछी, जिला-सोनीपत (हरियाणा) मे ही पहुँच गए, क्यूंकि बचपन से ही गाने-बजाने के शौक के कारण वे पंडित मांगेराम जी के सांगों को सुनने के बड़े ही दीवाने थे। इसलिए बचपन से ही गाने-बजाने चाव एवं लगाव के कारण उस समय के सुप्रसिद्द सांगी पंडित मांगेराम जी के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक था। फिर उस दिन पंडित मांगेराम जी ने सांग-मंचन करते हुए उनकी सरस्वतिमयी कंठ-माधुर्य ने उस किशोरायु राजेराम का ऐसा मन मोह लिया, कि वहीँ पे उन्होंने पंडित मांगेराम जी को अपना गुरु धारण करके उसी समय उनके सांग बेड़े मे शामिल हो गए। फिर पंडित राजेराम एक-दो दिन के बाद वहीँ से गुरु मांगेराम के साथ प्रथम बार उनके सांगी-बेड़े मे शामिल होकर गाँव खाण्डा-सेहरी मे सांग मंचन के लिए चले गए। उस दिन के बाद फिर गुरु मांगेराम ने अपने शिष्य बालक राजेराम की उम्र के लिहाज से उनकी जबरदस्त स्मरण शक्ति एंव सांगीत कला की मजबूत पकड़ को देखते हुए उन्होंने अपनी गुरु कृपा से बहुत जल्द ही इस साहित्यिक कला मे निपुण कर दिया। फिर अपने गुरु मांगेराम की इस बहुत ही सहजता एवं कोमल हर्दयता को देखकर अपनी गीत-संगीत की प्यास को बुझाने हेतु वे अपने गुरु मांगेराम जी के साथ ही रहने लगे। उसके बाद उन्होंने 6 महीने तक पूरी निष्ठां एवं श्रद्धा से गुरु की सेवा करके गायन-कला मे प्रवीण होकर ही अपनी इस सतत साधना और संगीत की आत्मीय पिपासा को पूरा किया। इस प्रकार फिर गुरु मांगेराम के सत्संग से शिष्य राजेराम भारद्वाज अपनी संगीत, गायन, वादन और अभिनय कला मे बहुत जल्द ही पारंगत हो गए। ।।।म्हारे घरक्यां तै होई लड़ाई, चाल्या उठ सबेरी मै,।।।।।।सन् 64 मै मिल्या पांणछी, मांगेराम दुहफेरी मै,।।।।।।न्यूं बोल्या तनै ज्ञान सिखाऊ, रहै पार्टी मेरी मै,।।।।।।तड़कै-परसूं सांग करण नै, चाला खाण्डा-सेहरी मै,।।।।।।राजेराम सीख मामुली, जिब तै गाणा लिया मनै,।।। (सांग:11 ‘कृष्ण-लीला’ अनु.-13) इस प्रकार पं0 राजेराम लगभग 6 महीने तक गुरु मांगेराम के संगीत-बेड़े में रहे। उसके बाद प्रथम बार इन्होंने भजन पार्टी सन् 1978 ई0 से 1980 तक लगभग 3 वर्ष रखी। फिर वे किसी कारणवश अपने भजन-पार्टी को छोड़ गए, परन्तु साहित्य रचना और गायन कार्य शुरू रखा, जिसकों उन्होंने इस कार्य को आज तक विराम नहीं दिया।इन्होंने अब तक 19 किस्से व 50 के आसपास फुटकड़ रचनाओं का सृजन किया जो निम्नलिखित हैं- 1 महात्मा बुद्ध2 देवी गंगामाई3 चमन ऋषि सुकन्या4 नारद विश्वमोहनी5 कंवर निहालदे नर सुल्तान6 सारंगापरी7 सत्यवान सावित्री8 दुष्यंत शकुंतला9 नल दमयंती10 सरवर नीर11 कृष्ण जन्म12 कृष्ण लीला13 रुक्मणी मंगला14 चापसिंह सोमवती15 पिंगला भरथरी16 गोपीचंद भरथरी17 सिद्ध संत बाबा जगन्नाथ18 परम फ़क़ीर बाबा छोटूनाथ19 मीरगिरी महाराज सिकन्दरपुरिया20 काव्य विविधा (50 से ऊपर फुटकड़ रचनाये)