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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
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इक दूजे के नाम से डर तक़्सीम हुए
दोनों जानिब ही ख़ंजर तक़्सीम हुए

बटवारे की नौबत बाद में आई है
पहले हम अंदर अंदर तक़्सीम हुए

सरदारी का शोक़ सभी के अंदर था
लश्कर वाले रस्ते भर तक़्सीम हुए

फूलों की तो सिर्फ़ नुमाइश थी लेकिन
सारी बस्ती में पत्थर तक़्सीम हुए

भूल गए मां बाप को जल्दी जल्दी में
घर तक़्सीम हुआ ज़ेवर तक़्सीम हुए
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