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शहर / अमृता प्रीतम

3 bytes added, 13:10, 10 अक्टूबर 2008
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मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों -सी…और गलियां गलियाँ इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर
हर मकान एक मुट्ठी -सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियांनालियाँ, ज्यों मूंह मुँह से झाग बहती बहता है
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मूंह मुँह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियां घंटियाँ-हार्न एक दूसरे पर झपटते
जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
शंख घंटों के सांस साँस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
पर नींद में भी बहस खतम ख़तम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….
</poem>
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