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|रचनाकार=जहीर कुरैशी
}}
{{KKCatGhazal}}<poem>आँखों की कोर का बडा हिस्सा तरल मिला,<br>रोने के बाद भी, मेरी आँखों में जल मिला। <br><br>
उपयोग के लिए उन्हें झुग्गी भी चाहिए, <br>झुग्गी के आसपास ही उनका महल मिला। <br><br>
आश्वस्त हो गए थे वो सपने को देख कर, <br>सपने से ठीक उल्टा मगर स्वप्न-फल मिला। <br><br>
इक्कीसवीं सदी में ये लगता नहीं अजीब, <br>नायक की भूमिका में लगातार खल मिला। <br><br>
पूछा गया था प्रश्न पहेली की शक्ल म, <br>लेकिन, कठिन सवाल का उत्तर सरल मिला। <br><br>
उसको भी कैद कर न सकी कैमरे की आँख, <br>जीवन में चैन का जो हमें एक पल मिला। <br><br>
ऐसे भी दृश्य देखने पडते हैं आजकल, <br>कीचड की कालिमा में नहाता कमल मिला।</poem>
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