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<poem>
धूप में साया बने तन्हा खड़े होते हैं
बड़े लोगों के ख़सारे भी बड़े होते हैं

एक ही वक़्त में प्यासे भी हैं सैराब भी हैं
हम जो सहराओं की मिट्टी के घड़े होते हैं

आँख खुलते ही जबीं चूमने आ जाते हैं
हम अगर ख़्वाब में भी तुम से लड़े होते हैं

ये जो रहते हैं बहुत मौज में शब भर हम लोग
सुब्ह होते ही किनारे पे पड़े होते हैं

हिज्र दीवार का आज़ार तो है ही लेकिन
इस के ऊपर भी कई काँच जड़े होते हैं
</poem>
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