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<poem>
जहाँ पर प्रस्फुटित होते नही हैं प्रार्थना के स्वर
वहाँ मनुजत्व के कल्याण का उत्सव नहीं होता
उसे मन्दिर की मूरत में भला ईश्वर दिखेगा क्या ?
जिसे चारों तरफ़ अपनत्व का अनुभव नही होता

मनुजता की कसौटी पर खरे उतरे नहीं हैं हम
मगर यह मान बैठे, धर्म का पालन किया हमने
जहाँ पर चेतना का पूर्णतयः अभिषेक होना था
वहाँ पर देह का ही सिर्फ़ प्रक्षालन किया हमने

वहाँ पर ज्ञान की सारी लताएँ व्यर्थ फैली हैं
जहाँ जड़ में दया के भाव का उद्भव नहीं होता

हमारे तर्क अक्सर धर्म पर आकर अड़े हैं पर
हमारी सोच में बुद्धत्व परिलक्षित नहीं होता
अगर सम्मान करने की सरलता आ नही पाती
स्वयं से ही स्वयं का धर्म संरक्षित नहीं होता

हम अपने-अपने धर्मों के लिए लड़ते तो आए हैं
मगर लड़कर के ईश्वर खोजना सम्भव नहीं होता

हमारा यश कभी भी धर्म को पोषित नहीं करता
हमारा आचरण यदि धर्म के विपरीत जाता है
अमिट वैभव, अमिट श्रद्धा में केवल फ़र्क है इतना
दशानन हार जाता है, विभीषण जीत जाता है

बिना भावों का जीवन, ऐसे उपवन की तरह ही है
जहाँ पक्षी तो होते हैं मगर कलरव नहीं होता
</poem>
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