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|संग्रह=दरिया का पानी / रमेश रंजक
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<poem>
नदी,
पर्वतों से निकलती है
इसलिए पत्थरों से नहीं डरती
... जंगल में ...
जंगल के राजा से नहीं डरती ।

वह जानती है
ज़िन्दगी रफ़्तार होती है
नदी,
रफ़्तार की सरगम पर गाती है
जंगल को गीत से गुँजाती है ।

नदी,
कहाँ लहरती है लहरने के लिए ?
उस पर
उठाए हुए तुम्हारे पुल
............................
बनाए हुए तुम्हारे घाट
............................
सिर्फ़ तुम्हारे होते हैं
नदी के नहीं होते ।

नदी,
किसी पुल
कृत्रिम कुल
की नहीं होती ।
वह,
अपने तरीके से
अपने परिवेश में उतरती है
वह,
अपना स्वरूप
अपने आप गढ़ती है,

पाते हो शान्त एकान्त !
नदी जब डेल्टा बनाती है
अपनी लाई हुई मिट्टी को
किनारों पर बिछाती है
उस वक़्त
उसके रोम-रोम से
यात्रा की गन्ध आती है ।
</poem>
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