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|रचनाकार=येव्गेनी येव्तुशेंको
|अनुवादक=विनोद दास
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<poem>
जुर्राबें अलाव पर पहले ही सूख चुकी थी
और दो मछुआरे विल्युई नदी की कलकल सुन रहे थे
मेरे ख़याल से उनमें एक पचास से ऊपर था
जबकि दूसरा अभी भी इतना कमउम्र था कि वह पासपोर्ट
नहीं बनवा सकता था
पिता ने डबलरोटी के छोटे छोटे टुकड़ों को
झाड़कर अपनी गदोली में रखा
फिर शहद की तरह गाढ़े मछली शोरबे में भिगोया
बाद में यह हुआ कि
काले हो गए सोने के एक दाँत से एल्युमीनियम के
चम्मच से टकराने की आवाज़ आई।

थकान से पिता का चेहरा स्याह सा हो गया था
उनके माथे की सलवटों में मानो छिपे हुए हैं
जंग, काम, बेहिसाब कारोबार
और अपने बेटे के भविष्य को लेकर
एक पिता का डर

जाल में छेद की तलाश में
सूरज की तरफ़ अपना हाथ दिखाते हुए
पिता ने कहा,” मीशका,जरा उधर एक नज़र डालो.
आखिरकार धुन्ध साफ़ हो रही है ...
यह ख़ूबसूरत नज़ारा है ।“

बेटा उनकी बात की अनदेखी कर तिरस्कार भरी नज़रों से अपना खाना खाता रहा
माथे पर झूलती सफ़ेद सुनहरी लट से उसकी आँखें ढँकी हुई थी
उसके माथे पर गिरी जुल्फें दम्भ से ऐसे लटकी रहीं
गोया कह रही हों कि ऐसी तुच्छ बात के लिए
मैं अपना सिर ऊपर उठाने की जहमत क्यों उठाऊँ
फिर उसने अपनी नाविक वाली कमीज़ से मछली की आँख को झिटका
और फिशिंग बूटों को
लहराकर उलटते-पलटते अपनी तरफ़ खींचा
जो उस ज़िन्दगी के लिए विलासिता की निशानी थी
जहाँ लोग नंगे पाँव काम चलाते थे
धुआँ निकलते अलाव को पिता ने बुझा दिया
और अकस्मात बुदबुदाया
“मैं तुम्हारे जूतों की आवाज़ सुन सकता हूँ - मीशका !
तुम फिर जुर्राबें पहनना भूल गए हो ।”

अपने अपमान को ठेंगा दिखाते हुए
बेटे के चेहरे पर एक युवा झेंप दिखी
उसने अपने फिशिंग बूटों को झट छोड़ा
और अपने पाँव जुर्राबों में डालने लगा
फिर गुस्से में पाँवों से दुबारा अपने जूतों को ठोकर मारी

हालाँकि वह भी एक दिन यह सब समझेगा
मगर यह सही है
कि तब तक बहुत देर हो चुकी होगी

हमारी रूह और देह में इतना अलगाव है
कि इस सरज़मीं पर ऐसा कोई नहीं होगा
जो उसे सुन सकता है
जिसे सुन सकते हैं
पिता के कान

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : विनोद दास'''

'''लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए'''
Евгений Евтушенко
ОТЦОВСКИЙ СЛУХ
М. и Ю. Колоколъцевым

Портянки над костром уже подсохли,
и слушали Вилюй два рыбака,
а первому, пожалуй, за полсотни,
ну а второй —
беспаспортный пока.
Отец в ладонь стряхал с щетины крошки,
их запивал ухой,
как мед густой.
О почерневший алюминий ложки
зуб стукался —
случайно золотой.
Отец был от усталости свинцов.
На лбу его пластами отложились
война,
работа,
вечная служивость
и страх за сына —
тайный крест отцов.
Выискивая в неводе изъян,
отец сказал,
рукою в солнце тыча:

«Ты погляди-ка, Мишка,
а туман,
однако, уползает...
Красотища!»
Сын с показным презреньем ел уху.
С таким надменным напуском у сына
глаза прикрыла белая чуприна —
мол, что смотреть такую чепуху.
Сын пальцем сбил с тельняшки рыбий глаз
и натянул рыбацкие ботфорты,
и были так роскошны их заверты,
как жизнь,
где вам не «компас», а «компас».
Отец костер затаптывал дымивший
и ворчанул как бы промежду дел:
«По сапогам твоим я слышу, Мишка,
что ты опять портянки не надел...»
Сын покраснел мучительно и юно,
как будто он унижен этим был.
Ботфорты снял,
в портянки ноги сунул
и снова их в ботфорты гневно вбил.
Поймет и он —
вот, правда, поздно слишком,
как одиноки наши плоть и дух,
когда никто на свете не услышит
то,
что услышит лишь отцовский слух...

1970
</poem>
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