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छोटी नज़्म / परवीन शाकिर

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<poem>
'''मौसम'''
'''चिड़िया पूरी तरह भीग चुकी हैऔर दरख़्त भी पत्ता पत्ता टपक रहा हैघोंसला कब का बिखर चुका हैचिड़िया फिर भी चहक रही हैअंग अंग से बोल रही हैइस मौसम<br>में भीगते रहनाकितना अच्छा लगता है
चिड़िया पूरी तरह भीग चुकी है<br>और दरख़्त भी पत्ता पत्ता टपक रहा है<br>घोंसला कब का बिखर चुका है<br>चिड़िया फिर भी चहक रही है<br>अंग अंग से बोल रही है<br>इस मौसम में भीगते रहना <br>कितना अच्छा लगता है<br>'''फ़ोन'''
'''मैं क्यों उसको फ़ोन<br>करूंउसके भी तो इल्म में होगाकल शबमौसम की पहली बारिश थी
मैं क्यों उसको फ़ोन करूं<br>उसके भी तो इल्म में होगा<br>कल शब<br>मौसम की पहली '''बारिश थी <br>'''
'''बारिश<br> बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की ! <br>उसे बुला जिसकी चाहत में <br>तेरा तन-मन भीगा है <br>प्यार की बारिश से बढ़कर क्या बारिश होगी ! <br>और जब इस बारिश के बाद <br>हिज्र की पहली धूप खिलेगी <br>
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे ।
</poem>
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