2,016 bytes added,
09:29, 25 नवम्बर 2021 {{KKRachna
|रचनाकार=निर्मल 'नदीम'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
इशरत ए दार ओ रसन, दाग़ ए तमन्ना ही सही,
रंग ए उल्फ़त न सही, रंग ए तमाशा ही सही।
जां से जाने के लिए कम तो नहीं है ये ख़ुशी,
उनका आना न सही, आने का वादा ही सही।
वुसअत ए इश्क़ की अज़मत को बचाने के लिए,
तू नहीं है तो तेरे पांव का नक़्शा ही सही।
और क्या जानिए क्या ले के ये जां छोड़ेगा,
सदक़ा ए इश्क़ में कुर्बानी ए दुनिया ही सही।
यूं तो इक उम्र समंदर को ही करना था तवाफ़,
घिस रहा है जबीं क़दमों में तो सहरा ही सही।
रश्क बुझने ही नहीं देगा वहां की शमऐं,
मैं नहीं बज़्म में उनकी, मेरा चर्चा ही सही।
गुलशन ए ज़ख़्म ए जिगर की भी हया क़ायम है,
उड़ता रहता है मगर, रंज का अनक़ा ही सही।
कुछ तो हो आंख से छलके जो लहू की सूरत,
गर नहीं शम्स, रुख़ ए यार का ग़ाज़ा ही सही।
फ़िक्र वाबस्ता नदीम अपनी है बस उससे ही,
ज़िक्र ए यूसुफ़ न सही, ज़िक्र ए ज़ुलैख़ा ही सही।
</poem>