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बदलाव / रेखा राजवंशी

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पिंजरे के तोते
बजी बन गए
बांसुरी के सुर सज गए
डिजरी-डू में।
गुलमोहर सिमट गए
बोटल- ब्रश की झाड़ियों में
और जाने कब
कैद हो गए
दीवाली और ईद
सप्ताहांत में।

जाने कैसे बदल गई
वक्त की परिभाषा
घड़ी की सुई से बंध गई
रिश्तों की आशा।

दोस्त बदलाव की
इस प्रक्रिया में
सवाल नहीं है
कुछ पाने या खोने का
खुश होने या न होने का।

सवाल बदलाव को
स्वीकारने का है
सवाल हालात से
न हारने का है।
</poem>