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पटकथा / पृष्ठ 2 / धूमिल

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|सारणी=पटकथा / धूमिल
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<poem>भीड़ बढ़ती रही।<br>रहीचौराहे चौड़े होते रहे।<br>रहेलोग अपने-अपने हिस्से का अनाज<br>खाकर-निरापद भाव से<br>बच्चे जनते रहे।<br>योजनायेँ योजनायें चलती रहीं<br>बन्दूकों के कारखानों में<br>जूते बनते रहे।<br>और जब कभी मौसम उतार पर<br>होता था। था हमारा संशय<br>हमें कोंचता था। हम उत्तेजित होकर<br>पूछते थे -यह क्या है?<br>ऐसा क्यों है?<br>फिर बहसें होतीं थीं<br>शब्दों के जंगल में<br>हम एक-दूसरे को काटते थे<br>भाषा की खाई को<br>जुबान ज़ुबान से कम जूतों से<br>ज्यादा ज़्यादा पाटते थे<br>कभी वह हारता रहा…<br>कभी हम जीतते रहे…<br>इसी तरह नोक-झोंक चलती रही<br>दिन बीतते रहे…<br>मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया।<br>मेरा सारा धीरज<br>युद्ध की आग से पिघलती हुयी बर्फ में<br>बह गया।<br>मैंने देखा कि मैदानों में<br>नदियों की जगह<br>मरे हुये साँपों की केंचुलें बिछी हैं<br>पेड़-टूटे हुये रडार की तरह खड़े हैं<br>दूर-दूर तक<br>कोई मौसम नहीं है<br>लोग-<br>घरों के भीतर नंगे हो गये हैं<br>और बाहर मुर्दे पड़े हैं<br>विधवायें तमगा लूट रहीं हैं<br>सधवायें मंगल गा रहीं हैं<br>वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ<br>अकाल का लंगर चला रही हैं<br>जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं-<br>‘यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना<br>सख्त मना है।’<br>फिर भी उस उजाड़ में<br>कहीं-कहीं घास का हरा कोना<br>कितना डरावना है<br>मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का<br>सबसे बड़ा बौद्ध- मठ<br>बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है<br>अखबार के मटमैले हासिये पर<br>लेटे हुये ,एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का<br>शांतिवाद ,नाम है<br>यह मेरा देश है…<br>यह मेरा देश है…<br>हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक<br>फैला हुआ<br>जली हुई मिट्टी का ढेर है<br>जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब-<br>नफ़रत है।<br>साज़िश है।<br>अन्धेर है।<br>यह मेरा देश है<br>और यह मेरे देश की जनता है<br>जनता क्या है?<br>एक शब्द…सिर्फ शब्द… सिर्फ एक शब्द है:<br>कुहरा,कीचड़ और कांच से<br>बना हुआ…<br>एक भेड़ है<br>जो दूसरों की ठण्ड के लिये<br>अपनी पीठ पर<br>ऊन की फसल ढो रही है।<br>एक पेड़ है<br>जो ढलान पर<br>हर आती-जाती हवा की जुबान में<br>हाँऽऽ..हाँऽऽ करता है<br>क्योंकि अपनी हरियाली से<br>डरता है।<br>गाँवों में गन्दे पनालों से लेकर<br>शहर के शिवालों तक फैली हुई<br>‘कथाकलि’ की अंमूर्त अमूर्त मुद्रा है<br>यह जनता…<br>उसकी श्रद्धा अटूट है<br>उसको समझा दिया गया है कि यहाँ<br>ऐसा जनतन्त्र है जिसमें<br>घोड़े और घास को<br>एक-जैसी छूट है<br>कैसी विडम्बना है<br>कैसा झूठ है<br>दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र<br>एक ऐसा तमाशा है<br>जिसकी जान<br>मदारी की भाषा है।<br>हर तरफ धुआँ है<br>हर तरफ कुहासा है<br>जो दाँतों और दलदलों का दलाल है<br>वही देशभक्त है<br>अन्धकार में सुरक्षित होने का नाम है-<br>तटस्थता। यहाँ<br>कायरता के चेहरे पर<br>सबसे ज्यादा रक्त है।<br>जिसके पास थाली है<br>हर भूखा आदमी<br>उसके लिये,सबसे भद्दी गाली है<br>हर तरफ कुआँ है<br>हर तरफ खाई है<br>यहाँ,सिर्फ ,वह आदमी,देश के करीब है<br>जो या तो मूर्ख है<br>या फिर गरीब है</poem>
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