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20:51, 10 मार्च 2022 {{KKGlobal}}
{{KKAnooditRachna
|रचनाकार=नाज़िम हिक़मत
|संग्रह=
}}
[[Category:तुर्की भाषा]]
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<poem>
मैं जग गया हूँ ।
तुम कहाँ हो ? घर में ?
अब तक तुम जागकर
घर में होने की आदत नहीं डाल पाए ?
तेरह साल जेल में गुज़ारने का
अजब असर है यह !
ये कौन सोया है तुम्हारी बग़ल में ?
ये अकेलापन नहीं, तुम्हारी बीवी है —
फ़रिश्तों जैसी,
गहरी नींद में सोई हुई ।
ज़रख़ेज़ी औरत का ही एक नाम है ।
वक़्त क्या हुआ ?
— सुबह के आठ ।
शाम तक बेफ़िक्र रहो —
दिन में आमतौर से
पुलिस घरों में छापा नहीं मारती ।
१९५०
''' अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल'''
</poem>