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शृंगार / प्रभात

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बेटी की विदाई के बाद का सन्नाटा है घर में
थक कर चूर पड़े हैं सबके सब बड़े कमरे में
बड़े बुज़ुर्ग सो रहे हैं बेसुध बाहर नीम की छाया में
जून की कठिन दुपहरी पड़ रही है
टैन्ट हाउस के उन पंखों के चलने की
कर्कश आवाज़ आ रही है जिन्हें लौटाना है शाम तक
इनकी गर्म हवा में ढही हुई माँ दादी काकी बुआएँ
और उनकी सारी लड़कियाँ जो शादी में सजी थी
थक गए हैं उनके शृंगार उनकी मेंहदी
किसी को अहसास नहीं फ़िलहाल
क्या है उसका हाल
जो चली गई है हमेशा के लिए
बचा हुआ जीवन जीने
पता नहीं बचेगा या नुचेगा
उसका शृंगार
देस बिराने में
</poem>
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