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|अनुवादक=सुरेश सलिल
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'''(1)'''

दिल से सन्तुष्ट, मैं एक ऊँची इमारत के अन्दर गया, जहाँ
से कोई शहर के समूचे फैलाव का नज़ारा कर सकता है —
यतीमों के अस्पताल, चकले, वैतरणी, नरक, कै़दखाने वगै़रह-वगै़रह ।

जहाँ हरेक ज़ुल्म अत्याचार एक फूल की तरह पुरबहार होता है,
तुझे पता है, ओ शैतान, मेरी सारी मुसीबतों के हिमायती,
कि मैं वहाँ यूँ ही टसुवे बहाने नहीं गया था,
बल्कि किसी बूढ़ी रखैल से लसे किसी बूढ़े लम्पट की तरह
जिस्मखोरी के तल तक पैठकर लुत्फ़ लेना चाहता था, जिसकी
नारकीय माया मुझे फिर जवान कर देने में कतई चूक नहीं करती ।

चाहे तुम अभी सोई हुई हो भोर की भारी-गहरी परतों में
लिपटी, तुम्हारी साँस रुँधती हुई हो, या सोने के बारीक तारों
के बेलबूटों वाली साँझी ओढ़नी ओढ़े थिरक रही हो,

मैं तुझे प्यार करता हूँ बदनाम राजधानी! तवायफ़ो, डाकुओ,
इस तरह तुम भी अक्सर खुशियाँ पेश करते हो, जो आम
और गँवार लोग नहीं समझ सकते ।

'''(2)'''

फ़रिश्तो, सोने और जवाहरात से लदे-फदे, ओ तुम !
गवाह बनो, कि मैंने अपना फ़र्क एक निपुण अत्तार
और एक पवित्र आत्मा की भाँति निभाया
हरेक चीज़ में से उसका सारतत्व निकाला,
तुमने (ओ पेरिस) मुझे अपना कीचड़ दिया और मैंने उसे सोना बनाया ।

'''अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल'''
</poem>
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