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बुलडोजर/ स्वप्निल श्रीवास्तव

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<poem>
ये बुलडोजर नहीं
जैसे शत्रु देश के टैंक हो
अपने ही नागरिकों को रौंद
रहे हैं
जो नाफ़रमानी करता है
उसे सबक सिखा देते है

इनके लिए कोई सरहद नहीं
नहीं है कोई बन्दिश
इनकी मनमानी को कोई चुनौती
नहीं दे सकता है

बुलडोजर अचानक कही भी पहुँच सकते हैं
उन्हें किसी हुक़्म की ज़रूरत
नहीं है
वे हुक़्म के परे हैं

मगरमच्छ की तरह रक्ताभ हैं
इनके जबड़े
नुकीले हैं इनके दाँत
वे दूर से दिखाई देते हैं

ये नदी या झील में नहीं रहते
ज़मीन पर क़वायद करते
रहते हैं
निरपराध लोगों को बनाते हैं
शिकार

वे बिना सूचना के आते है
किसी अदालत में नहीं होती
इनके ख़िलाफ़ कार्यवाही

वे किसी अदालत का आदेश
नहीं मानते
ख़ुद ही फ़तवा जारी करते हैं

पूरे इलाके में है इनका खौफ़
लोग इनके डर से बाहर
नहीं निकलते

बुलडोजर नींद में भी दुःस्वप्न
की तरह आते हैं
और हमारा चैन बर्बाद कर
देते हैं

ये तानाशाहों के सैनिक हैं
इन्हें अभयदान मिला हुआ है
वे कही भी जा सकते हैं
और किसी को भी ढहा
सकते हैं
चाहे वह इमारत हो या कोई
आदमी

थोड़ा रुककर सोचिए
जो कारीगर इसे बनाते है
वह क्या इसके कुफ़्र से बच
पाते होंगे ?
</poem>
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