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23:22, 24 अप्रैल 2022 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=बैर्तोल्त ब्रेष्त
|अनुवादक= उज्ज्वल भट्टाचार्य
|संग्रह=
}}
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<Poem>
'''एक'''
तुम भूखे हो, सर्वहारा
क्या रोटियाँ काफ़ी नहीं हैं ?
रोटियाँ तो हैं, पर हम तक पहुँचती नहीं हैं ।
वो क्या चीज़ है, जो तुम्हें रोटी से दूर रखती है ?
एक खिड़की के शीशे के अलावा कुछ भी नहीं !
फिर उसे तोड़ डालो !
मौत से मत डरो !
डरो, बदहाल ज़िन्दगी से ।
'''दो'''
और, रोटी और तुम जैसे भूखों के बीच
है सिर्फ़ एक खिड़की का शीशा
वह आलीशान मकान ! हाँ, जी भर देख लो !
हुआ होता तुम्हारा बसेरा ।
'''मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य'''
</poem>