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09:27, 30 अप्रैल 2022 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=शेखर सिंह मंगलम
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<poem>
बंजर तंजीमें तालीम-गाहों में
दंगे बोने लगी हैं
तर-ब-तर दीवारें खौफ़ से और
किताबें रोने लगी हैं,
सुकूत के अब्र छाने लगे हैं
इल्म के आसमानों में
मुज़ाहिरों में ख़ूनी लाठियाँ
जिस्मों को धड़-धड़ धोनें लगी हैं,
बाब-ए-इल्म पे
सियासी पासबाँ बैठा है यारो
देवी माँ वागेश्वरी
तालीम-गाहों के बाहर सोने लगी हैं।
</poem>