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09:29, 30 अप्रैल 2022 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=शेखर सिंह मंगलम
|अनुवादक=
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<poem>
औरतें कुम्हार के हाथ जैसा पुरुष चाहती हैं
वे भावनात्मक स्तर पे
गीली मिट्टी होने की वज़ह से
पुरुष-प्रेम में कोई भी वाज़िब-ग़ैर-वाज़िब
बदलाव दरियाफ़्त कर लेती हैं।
पुरुष अपनी शख़्सियत में
स्त्री-प्रभाव से बदलाव नहीं चाहता क्योंकि
खुद को कुम्हार समझता है जबकि
वह कुम्हार द्वारा पकाया गया मिट्टी का बर्तन है जो
बदलाव दरियाफ़्त करने के स्थान पे
टूटना पसंद करता है।
कुम्हार के हाथ-सम पुरुष
पृथ्वी पर अपवाद स्वरूप ही विद्यमान हैं।।
</poem>