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सिगरेट / शेखर सिंह मंगलम

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<poem>
कई साल जला कर
सिगरेट की तरह पी गया।

होंठ उन सालों की सिसकियाँ बटोरे हुए हैं;
धुआँ फूँकने के पहले नशा था
कुछ जलन भी।

धुआँ फूँकने के बाद
न तो नशा उतर पाया और
न ही जलन मद्धम हुई,
आने वाला साल भी जल जाएगा
इसी नशे में, इसी जलन में..

शायद, जब फेफड़ा जल जाएगा
तब खुमारी समझदारी में उतर जाएगी किन्तु
फेफड़ा जल जाने के बाद
मैं समझदारी का क्या करूँगा?
</poem>
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