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09:33, 30 अप्रैल 2022 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=शेखर सिंह मंगलम
|अनुवादक=
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<poem>
तुम गूंगे, बहरे, अंधे, नंगे रास्ते पे
क्यों निकलती हो?
तुमको कितनी बार बताया गया हवा ख़राब है।
हवस से अटे लोग भी
मोमबत्तियों की रोशनी में शरीक हैं;
वही मोमबत्तियाँ जो कभी पिछली मर्तबा
जलाई गईं थीं निर्भया के लिए।
शरीक लोग, शरीक होते हैं
अपनी वासना-बदन पे
सहानुभूति की चादर ओढ़ कर,
सहानुभूति देने का छलावा देने वाले
तुम्हारी साँसों की बाती नोच
तुम्हे जला दिए;
एक बार फिर मोम की बत्तियाँ जलाई जाएँगी।
साँसों की अगली बत्तियाँ नोच
जलाने के लिए।
तुम गूंगे, बहरे, अंधे, नंगे रास्ते पे
क्यों निकलती हो?
गूंगे, बहरे, अंधे, नंगे लोगों का देश है
तुम्हें ही बदचलनी की हवा में उछाल देंगे;
तुमको कितनी बार बताया गया हवा ख़राब है।
</poem>