1,435 bytes added,
06:37, 18 जून 2022 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल
|अनुवादक=
|संग्रह=बर्लिन की दीवार / हरबिन्दर सिंह गिल
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
पत्थर निर्जीव नहीं है
ये दार्शनिक भी हैं।
यदि ऐसा न होता
मानव को ठोकर शब्द का
ज्ञान ही न हो पाता
और ठोकर के अभाव में
कोई भी ज्ञान
अपने आप में कभी पूर्ण नहीं होता।
पत्थर की ठोकर तो
चाव लगकर भर जाती है
परंतु जब कभी
अपने कहे जाने वाले
धोखा देते हैं
न पूछो गहराई चोट की
कितने अंदर तक
दिलों को घायल कर देते हैं।
तभी तो बर्लिन की दीवार के
ये ढ़हते टुकड़े पत्थरों के
दे रहे हैं दुहाई मानव को
कि सीख लो सीख
उस ठोकर से
जो कभी लगी थी
इस दीवार को
खड़ा करने में।
</poem>