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मैं जामवनी, दुसाध टोले के शिबू दुसाध की बेटी साँझली हूँ
पत्रकारों ने कहा —
“अरे इतना ही बोल देने से भला कैसे होगा?
तुम्हें कुछ और तो बोलना ही पड़ेगा ।"
टीवी वालों ने पूछा,—”तुम मज़दूर की बेटी,
लोगों के यहाँ चौका-बर्तन करके दसवीं में अव्वल कैसे आई ?
इन्हीं बातों को तुम्हें खुलकर बताना है ।”
 
पंचायत की अनी भाभी, ग्राम-प्रधान, उप-प्रधान, एमएलए, एमपी
सबलोग टूट पड़े मेरे झोंपड़ी वाले घर में
जामवनी स्कूल के हेडमास्टर ने
भोरे-भोर टिन का गेट खोलकर
हाँकते-पुकारते हमारी नींद तोड़ दी — जब उन्होंने पहली बार यह ख़बर सुनाई
उस समय मैं माँ से लिपटकर सोई हुई थी
 उस झोपड़ी के घनघोर अन्धेरे में हेडमास्टर साब को देखते हीआँखें मिंचमिंचाते हुए माँ और मैं दोनों हतवाक होकर यही सोचने लगे —
क्या हम सपना देख रहे हैं
सर बोल उठे — अरे ये सपना नहीं, बिलकुल भी सपना नहीं है, सच है
सुनते ही खूब रोए थे हम माँ-बेटी
 
आज बाप ज़िन्दा होता
उस आदमी को मैं दिखा पाती, दिखा पाती बहुत कुछ —
मेरे सीने के भीतर
 
जिस आदमी ने तेज़ रोशनी का संध्या दीप जलाया था
वही रोशनी आज किस तरह इस झोपड़ी को रोशन कर रही हैवो मैं दिखा पाती उन्हें आप लोग कह तो रहे हैं
“तुम लोगों की तरह लड़कियाँ अगर उठकर आ पातीं,
तभी भारतवर्ष उठ सकता है”,बात तो बिलकुल सही है , लेकिन
उठकर आने का रास्ता ही कहाँ तैयार है यहाँ
खड़े पहाड़ की चढ़ाई चढ़ना क्या आसान है इतना
“बेटी है कि माटी”
दादी बोलती थी
दूसरो के घर बर्तन-बासन ही तो करना है फिर क्या पढ़ना-लिखना
गाँव के बाबू लोग बोलते थे
तुम दुसाध टोले की बेटी , बर्तन-बासन के आलावा अलावा और भला , क्या चारापर बाप बोलता था“देख सांझली साँझली – मन को दुखाओगी तो हार जाओगीसुनो जो जैसा भी बोल रहा है , बोलने दो
सारी बातें एक कान से सुन लो
और दूसरी कान से निकाल दो
 उस समय बाबू पाड़ा के दे घर में माँ बर्तन-बासन करती थीक्षय रोग के बावजूद माँ का की देह टूटा टूटी नहीं था उतनाथी उतनीबीच-बीच में कभी बुखार बुख़ार अवश्य आता था , बुखार बुख़ार आने पर माँ
चुपचाप आँगन में चटाई बिछाकर सो जाती
याद है वो एक जाड़े की सुबह थी
याद है वो एक जाड़े की सुबह थी
झिलमिलाती हुई धूप खिली थी
बिल्कुल झींगे के फूलों-सी पीली धूप
मैं धूप की तरफ पीठ करके हिलते हुए पढ़ रही थी
इतिहास ....
सातवीं क्लास के सामंती सामन्ती राजाओं का इतिहासदे घराने की बहु बहू ने कई बार लोगों से हांक हाँक भिजवाई थी
माँ को बुखार है लेकिन वे सुनना ही नहीं चाहते
हमारी बूढी बूढ़ी दादी तब जिंदा ज़िन्दा ही थीफटे हुए कम्बल ओढ़कर बीड़ी धुंक धोंक रही थी बुढ़ियाआखिर बूढी आख़िर बूढ़ी ने मुझे पढ़ाई से उठवा ही दिया
माँ के काम के लिए मुझे बाबू लोगों के घर भेज दिया
पुरानी चाहरदीवारी चहारदीवारी से घिरा विशाल आंगन आँगन उतना जितना बड़ा दर-दलान-, उतना ही बड़ाबरामदा
सब जगह झाड़ू-पोछा करके वापिस आ रही थी
दे घर की बहु बहू ने नहीं छोड़ा ढेर सारा जूठा बर्तनमेरे सामने लाकर रख दी | मैं बोली
“मैं आपलोगों का जूठा बर्तन नहीं धोऊँगी”
बाबू के बहु बहू को बहुत गुस्सा आया“क्या बोली, जितनी बड़ी लडकी लड़की नहीं उतनी बड़ी बात, जानती होतुम्हारी माँ , तुम्हारी माँ की माँ , उसके माँ की माँ सबलोग अब तकहमलोगों का जूठा धोकर गुजर गईगुज़र गईंऔर तुम हमलोगों का जूठा बर्तन नहीं धोऊँगीधोओगी पर मैंने बोल दिया “हाँ , मैं आपलोगों का जूठा बर्तन नहीं धोऊँगी”आप किसी और को ढूंढ ढूँढ़ लो , मै चली ..और बोलकर बाबु बाबू की बहु बहू के सामने से गटगट गटगट कर
मैं लौट आई
उसके बाद उन बातों को लेकर बहुत झमेला हुआ
बेला डूबते ही बाप महतो लोगों का धान काटकर घर लौटादो पन्ने की पढ़ाई करने वाले वाली इस छोटी पोती के मुंह मुँह से इतनी बड़ी-बड़ी बातें
सातकहन की तरह समझाया था बुढ़िया ने
माँ एकदम चुप थी
 अगहन महीने के संध्या बेला में आंगन आँगन में आग जलाई गई है
माँ हाथ-पाँव सेंक रही थी
घने बालों वाले पिता का पत्थर-सा सपाट चेहरा
आग में चमक उठा था
मैंने बाप का वैसा चेहरा कभी नहीं देखा
मेरे बाप ने उस रोज़ माँ और बुढ़िया दादी के सामने अपने पास बुलाया
माथे पर हाथ फेरते हुए ओजस्वी स्वर में बोले –
“जो भी किया ! बढ़िया किया
सुन, तुम्हारी माँ, उनकी माँ, उनके माँ की माँ – सब ने बर्तन-बासन की है बाबुओंके घर में पेट भरने के लिए मेहनत की
लेकिन उससे हुआ क्या
लेकिन उससे हुआ क्या , इस बात को याद रखना सांझलीसाँझली,तुम तुमने बर्तन-बासन करने के लिए जन्म नहीं ली होलिया हैचाहे जितना बड़ा लाट साहेब ही क्यों न हो किसी के सामने सिर झुकाकर
अपने इस स्वाभिमान को मत बेच देना
इसी स्वाभिमान के लिए तुझे पढनापढ़ना-लिखना सिखाया हैनहीं तो , हम जैसे पेट पालने वालों के घर में है ही क्या ?”मैं जामवनी के दुसाध टोले की शिबू दुसाध की बेटी सांझली हूँकबके उस सांतवे क्लास की वो बात सोच रही हूँकि अखबार वालों और टी वी वालों के सामने क्या बोलूँताड़ पत्तों से घिरे गोबर लिपे उस आंगन में लोगों का हुजूम भरा हैइस बीच साइरन बजाते हुए , जीप गाड़ी पर सवार
मैं जामवनी के दुसाध टोले की शिबू दुसाध की बेटी साँझली हूँकबके उस सातवे क्लास की वो बात सोच रही हूँकि अख़बार वालों और टीवी वालों के सामने क्या बोलूँताड़ के पत्तों से घिरे गोबर लिपे उस आँगन में लोगों का हुजूम भरा है इस बीच साइरन बजाते हुए, जीप गाड़ी पर सवारआगे-पीछे पुलिस लेकर मंत्री दौड़े आयेआए —“कहाँ है रे सांझली साँझली कोइरी, कहाँ है” बोलते हुएबंदूकधारी बन्दूकधारी पुलिस लेकर सीधे हमारे झोपड़ी वाले घर में हेडमास्टर बोल उठे,”प्रणाम कर सांझली, साँझली, प्रणाम कर”कर ।”मंत्री ने पीठ थपथपायाथपथपाई, थपथपाते हुए बोला
“तुम लोगों के घर बर्तन-बासन करते हुए दसवीं में अव्वल आई हो
इसलिए तुम्हें ही देखने आया हूँ, सच में बहुत गरीबी ग़रीबी है
तुम जैसी लडकियाँ आगे बढ़े
इसलिए तो हमारी पार्टी है , इसलिए हमारी सरकार है- ये लो, दस हजार हज़ार रूपये का चेक , अभी लोसुनो, हमलोग तुम्हे तुम्हें और भी फूल और सम्मान देंगे
और भी रूपये मिलेंगे
अरे टी वी टीवी वाले, अखबार अख़बार वाले कौन हो हैं, इस तरफ आओ “तरफ़ आओ“ 
उसी समय छोटे-बड़े कैमरे झलक उठे
झलक उठा मंत्री का चेहरा , नहीं - नहीं , मंत्री नहीं , मंत्री नहीं
झलक उठा मेरे बाप का चेहरा
लहकते हुए आग से झलकते मनुष्य का चेहरा
मैं उसी समय बोल उठी –
“नहीं -नहीं , ये रूपये मुझे नहीं चाहिए,और आपने जिस जो फूल और सम्मान देने की बातें की , वो भी नहीं चाहिए “चाहिए“ 
मंत्री थूक निगलने लगा
गाँव के दे घराने का बड़ा बेटा अभी पार्टी का बड़ा नेता बन गया है
भीड़ को चीरते हुए सामने आकर बोला –
“क्यों , क्या हुआ रे सांझलीसाँझली,
तू तो मेरे घर की नौकरानी थी
बोल तुझे क्या चाहिए, बोल खुलकर बोल तुझे क्या-क्या चाहिए”
बोली -मेरे मोहल्ले में और भी सौ-सौ सांझली साँझली हैऔर भी शिबू दुसाध की लड़कियां लड़कियाँ हैं ग्राम-गंज मेंवे लोग जब तक अँधेरे अन्धेरे में रहेंगी, जब तक वे पढनेपढ़ने-लिखने को तड़पती रहेगीरहेंगी
तब तक मुझे किन्ही बाबुओं की दया नहीं चाहिए,
सुन रहे हैं बाबुलोग बाबूलोग तब तक आपलोगों की दया नहीं चाहिए ... '''मूल बांग्ला से अनुवाद : प्रशान्त विप्लवी'''
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