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पृथ्वी तो ऐसी ही है ।
सोचता हूँ जीवित रहना होगा इसी के बीच ।
बरगद के पेड़ से लटकने वाली जड़ो जड़ों की तरह हमारे,
मेरे — शरीर को घेरकर
कितनी कितनी अभिज्ञता उतर आई
मृत्यु से ठीक पहले
समझ भी नहीं पाया मैं
कि किस देश के लिए मैंने अपने शरीर का यह बलिदान किस देश पर कर दूँ किया है
</poem>
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