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"मृगजल के गुंतारे” सुन्दर, गठीले, विरल और व्यक्तित्व – दीप्त गीतों का संग्रह है. पहला ही गीत कवि की क्षमता को प्रमाणित करता है, इसके अरूढ़ शब्द- प्रयोग गीत को, ‘गीत शिल्प को’ एवं गीतकार को, अपनी परच देते हैं। “खंतर”, “धरती की गहराई”, “ठाँय लुकुम हर अंतर की”, “बीज तमेसर बोए” जैसे प्रयोग लोक-लय का वरण कर गीत - ग्रहण को ललकीला बना सके हैं। संग्रह का “गूलर के फूल” टूटे सपनों का गीत है, पर कसे छन्द और अनुभूति - सिद्ध भाषा से “थूकी भूल” को भूलने नहीं देता। ऐसे कई गीत हैं।
श्री शशिकांत शशिकान्त गीते की भाषा ज़िन्दगी से जन्म लेती है। इसी से किसी दूसरे गीत - कवि से मेल नहीं खाती, पर हमारे दिल को भेद देती है। वर्तमान भारतीय लोकतन्त्र जो अविश्वास उत्पन्न करता चल रहा है, वह भी इन गीतों में है, पर ये राजनीति के गीत नहीं हैं। ये समय के सुख - दुःख के गीत हैं। ये “सच” के गीत हैं, ठोस भाषा में। गीतों में समय का संशय और अनिश्चय भी है, पर वे वर्तमान होने की प्रतिज्ञा से बँधे नहीं हैं। आज के ये गीत कल मरेंगे नहीं। ये मात्र समय - बोध के नहीं, आत्मबोध के गीत भी हैं और प्रकृति से सम्बल लेते चलते हैं:-
एक टुकड़ा धूप ने ही
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