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13:03, 28 अगस्त 2022 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=जितेन्द्र निर्मोही
|संग्रह=
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<Poem>
अपने ही शहर में अंजान हुए
अपने ही घर के मेहमान हुए
गीतों ने रूख मोड़े
ग़ज़लों ने मुख मोड़े
दिलकश संवादों ने
सामाजिक साथ छोड़े
परिचय से भटके, बेनाम हुए।
रूसवाई साथ लगी
डूब गये होंसले
बाढ़ के बहाव बहे
प्यार के वो घोंसले
लहर लहर उठ गई, तूफान हुए।
जैसे कोई मेले में
भीड़ के से रेले में
भटक जाए बालक जो
सांझ के झमेले में
अंगुली के आसरे गुमनाम हुए।
</Poem>