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|रचनाकार=रवीन्द्रनाथ ठाकुर
|अनुवादक=सुलोचना वर्मा
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उद्भ्रान्त उस आदिम युग में
जब स्रष्टा ने स्वयं से होकर असन्तुष्ट
किया था विध्वस्त नूतन सृष्टि को बारम्बार,
अधैर्य होकर बार-बार अपना सर हिलाने के उन दिनों में
रुद्र समुद्र के बाहू
प्राची धरित्री के सीने से
छीनकर ले गए तुम्हें, अफ्रीका,
बाँधा तुम्हें वनस्पतियों के निविड़ पहरे में
कृपण आलोक के अन्तःपुर में ।
वहाँ तुमने निभृत अवकाश पर
किया संग्रह दुर्गम के रहस्यों को,
पहचान रहे थे तुम जल, स्थल और आकाश के दुर्बोध संकेतों को,
प्रकृति का दृष्टि-अतीत जादू
जगा रहा था मंत्र तुम्हारी चेतनातीत मन में ।
विद्रूप कर रहा था भीषण को
विरूप के छद्मवेश में,
चाह रहा था शंका से हार मनवा लेना
स्वयं को कर उग्र विभीषिका की प्रचण्ड महिमा में
ताण्डव के दुन्दुभिनाद में ।
हाय छायावृता,
काले घूँघट के पीछे
अपरिचित था तुम्हारा मानवरूप
उपेक्षा की आबिल दृष्टि में ।
वे आए लोहे की हथकड़ी लेकर
जिनके नाखून भेड़ियों से भी हैं तेज,
आए लोगों कों गिरफ्तार करनेवाले दल
गर्व से जो हैं अंन्धे तुम्हारी बिना सूर्य की रौशनी वाले अरण्य से अधिक।
सभ्यों के बर्बर लोभ ने
नग्न की अपनी निर्लज्ज अमानवीयता ।
तुम्हारे भाषाहीन क्रन्दन के वाष्पाकुल अरण्य पथ पर
पंकिल हुई धूल तुम्हारे रक्त और अश्रु में मिल;
बड़े पाँव वाले कँटीले जूतों के नीचे
वीभत्स कीचड़ पिण्ड
चिरचिन्ह लगा गए तुम्हारे अपमानित इतिहास में ।
समुद्र तट पर उसी मुहूर्त उनके हर मोहल्ले के
गिरजाघरों में बज रहा था प्रार्थना का घड़ियाल
सुबह- शाम, दयामय देवता के नाम पर;
शिशु खेल रहे थे माँ की गोद में;
कवि के संगीत से गुंजायमान थी
सुन्दरता की आराधना ।
आज जब पश्चिम-दिगन्त में
प्रदोष काल के झंझा बतास से है रुद्ध श्वास ,
जब बाहर निकल आए पशु गुप्त गुफ़ा से,
अशुभ ध्वनि के साथ करता है घोषणा दिन का अन्तिम काल,
आओ, युगान्तकारी कवियों,
आसन्न संध्या की शेष रश्मिपात में
खड़े हो जाओ उस सम्मान खो चुकी मानवी के द्वार पर,
कहो — "क्षमा कीजिए" —
हिंस्र प्रलाप के मध्य
वही हो तुम्हारी सभ्यता की शेष पुण्यवाणी ।
'''मूल बांगला से अनुवाद : सुलोचना वर्मा'''
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