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12:47, 22 अक्टूबर 2022 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=शंख घोष
|अनुवादक=शेष अमित
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
री चींटी !
तेरे पंख निकले
अब सहन नहीं होता ।
पंक्तिबद्ध पंक्तिबद्ध पंक्तिबद्ध चेहरे
अब सहन नहीं होता,
अलमारी, प्लेट, बरामदा, किताब, उदास मेज़पोश,
इस गहन रात में छीन लोगी क्या मेरी शैय्या भी ?
चींटी !
घर कहाँ है री तेरा ?
उड़ जा वहीं पंख लगा,
नहीं तो, कूद पड़ नदी में,
या जलाकर आग बड़ी कोई, नाच घेरकर,
पंख निकले, निकले पंख तेरे,
री चींटी !
अब सहन नहीं होता ।
'''मूल बांगला से अनुवाद : शेष अमित'''
</poem>