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|रचनाकार=शंख घोष
|अनुवादक=अनिल जनविजय
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<poem>
तुमने कहा था —
जय होगी, विजय होगी ।
हमेशा नहीं रहेंगे दिन ऐसे

ये सुनकर मन में धमाके हुए इतने
कि आश्चर्य में भरकर
नाचने लगा था मेरा मन-मयूर !

उत्सव से भरे
उस दुख के बारे में सोचकर
स्वाभाविक ही
मेरे मन में उभर आते हैं
वे भयावने दृश्य
व्यथित मन से मैं पी लेता हूँ वह तीखा ज़हर
जो पकड़ रखा था मैंने अपने हाथों में

तुमने कहा था —
युद्ध होगा, दंगल होगा
इसके अलावा कुछ नहीं होगा
गर चाहोगे तुम तो सब कुछ होगा
हर कहीं, हर कहीं ...

हमारा भूमण्डल झर रहा है
भुरभुरा रहा है, बिखर रहा है
पर बच जाएँगे हम दफ़्न होने से
विषादपूर्ण हैं सब मित्रों के दिल
पर नहीं कोई यहाँ आने क़ाबिल

तुमने कहा था —
सब इसका होगा, सब उसका होगा
हम सबको कुछ नहीं होगा

अब तुम्हारे कहे रास्ते पर
चल रहा संसार
लेकिन लग रहा है सब कुछ हमें
पूरी तरह से ’निस्सार’
हमने तो कभी सोचा भी नहीं था
कि ’विजय’ के भीतर भी छुपी होगी
इतनी ’गहरी हार’।

'''मूल बांग्ला से अनुवाद : अनिल जनविजय'''
</poem>
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