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जिज्ञासु / दीप्ति पाण्डेय

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<poem>
मैं
अघोषित जिज्ञासु हूँ प्रिय
तुम्हारी पूर्व प्रेमिकाओं के नैन -नक्श, रूप के प्रति
कि उनके सौन्दर्य ने तुम्हे कितने अंतराल तक बाँधे रखा
और क्या उनकी देह देहरी पर तुमने कभी माथा टेका था ?

मेरे प्रश्न उतावले हैं
तुम्हारी पाँचवी प्रेमिका के अधरों की तरह
अपनी तृप्ति हेतु
जो अतृप्त ही रहे, अनंत क्षुधा को अभिशप्त रहे
किन्तु क्या तुमने कभी आत्मतृप्ति का स्वाद चखा था ?
याकि अतृप्त कामनाओं की बारम्बारता ने तुम्हे
देहानुरागी बना दिया था ?

तुम्हारी आयु की गोधूली बेला में
कौन थी वो श्यामवर्णी अभागी
जो तुम्हारी वासनाओं के शूल
अपनी आत्मा से बुहार रही थी
अपने जीवन के बासंति दिनों में ?

मेरी जिज्ञासाओं को पूर्ण विराम दो हे !
मैं अपनी जिज्ञासाओं को मृत्युदंड नहीं दे सकती
यथाकि
उनकी अतृप्ति
तुम्हारी पाँचवी प्रेमिका की अतृप्ति से तीव्र है
</poem>
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