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लड़ाई / रूपम मिश्र

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लड़ाई-भिड़ाई बहुत जरूरी थी हमारे लिए, पर हमारे लिए उद्धारक नियुक्त किए गए
और हमें सजना-सँवरना, लजाना- शर्माना, रोना-डरना, उनका मनोरंजन करना, यही विभाग सौंपा गया
जबकि जन्म लेते ही हमारे कान में लड़ाई-भिड़ाई का मंत्र फूँकना था

सबसे लड़ो ! पिता से, प्रेमी से, पति से, पुत्र से
नहीं तो, एक ग़ैर ज़रूरी सामान की तरह घर के किसी कोने में पड़ी रहो
संसार को बचाने के लिए संसार से लड़ो
नदियों के लिये लड़ो, पेड़ों के लिए लड़ो, जंगल और पहाड़ के लिए लड़ो

स्थूल देहों के भार से दबी कमज़ोर देहों के लिए लड़ो
टोने-टोटके के लिए जान लेने वाले विक्षिप्त समाज से लड़ो

प्रेम करने पर सिर काट लेना और हत्या करने पर सिर पर बिठाकर जयघोष करती दुर्दान्त सोच से लड़ो

श्रम करने वाले श्रम ही करते रहे और चालाक शासन व विलास
ऐसी महाजनी व्यवस्था से लड़ो

नशे और बाल-श्रम के गन्दे पंजे में छटपटाते बच्चों के लिए लड़ो
रोज़ पिटती, खटती फिर साथ सोने को बेबस कमज़ोर स्त्रियों के लिए लड़ो

पितृ सत्ता की थमाई लाठी लेकर इतराती फिरतीं उन अबोधों के लिए लड़ो
जिन बेचारियों को शायद पता ही नहीं उस सत्ता की सोढ़ कितनी गहरी है

कैसे भी करके स्त्रियों को नीचे रखो सारे धर्मों की इस सन्निपाती सोच से लड़ो
बोलियों और भाषाओं के भदेसपन के लिए लड़ो
खान-पान, रहन-सहन, पहनने -ओढ़ने में शुद्धता के अनावश्यक दख़ल से लड़ो
अन्याय की सारी कड़ियाँ एक-दूजे की सगी हैं
सारे खाप और ताब से लड़ो

ऐ प्रेम करने वाली नई नस्लो ! उठो, हमारी लड़ाई बेहद कठिन है, क्योंकि हमें घृणाओं से बिन घृणा किए लड़ना है

तुम लड़ो, तुम्हें लड़ना ही होगा, क्योंकि एक आत्मघाती समाज सब कुछ नष्ट करने की ज़िद पर है

लड़ो कि वह एक बहुत बड़ी विषमाधी भीड़ को लेकर बढ़ा आ रहा है…!
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