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04:20, 18 दिसम्बर 2022 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कैलाश वाजपेयी
|अनुवादक=
|संग्रह=संक्रांत / कैलाश वाजपेयी
}}
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<poem>
एक पर एक पर एक
सारे आकर्षण मरते चले गए
हम जिन्हें दर्द का अभिमान था
भद्दी दिनचर्या से
अपने क़ीमती घाव
भरते चले गए
हमारा सब अनिर्णीत छूट गया
उस नक्षत्र की
तरह जो-
भरी दोपहर में टूट गया
</poem>