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इतिहासांत / कैलाश वाजपेयी

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|संग्रह=संक्रांत / कैलाश वाजपेयी
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<poem>
एक पर एक पर एक
सारे आकर्षण मरते चले गए
हम जिन्हें दर्द का अभिमान था
भद्दी दिनचर्या से
अपने क़ीमती घाव
भरते चले गए

हमारा सब अनिर्णीत छूट गया
उस नक्षत्र की
तरह जो-
भरी दोपहर में टूट गया
</poem>