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प्रेमी / जय गोस्वामी / पवन साव

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<poem>
दी यों तुमने उस दिन जो बरखा बुलाने की किताब
उसमें कमर तक पानी भर गया है
दूसरे पन्ने पर यह नदी की धार बनकर
कहीं दूर मुड़ गई है

दी थी तुमने मुझे जो फूल-पत्तों से भरी किताब
वहाँ आज घना जंगल है कि एक भी पैर आगे बढ़ाना
मुमकिन नहीं
पेड़ इतने बड़े हो गए हैं कि
रोशनी को मिट्टी तक आने नहीं दे रहे

दी थी तुमने जो मुझे झरना होना सीखने की किताब
वहाँ आज मस्त जल-प्रपात उफ़नता झर रहा है

यहाँ तक कि तुमने जो पंख रखा था मेरी किताब में
वहाँ अभी कितने ही पंछी उड़ रहे हैं, बैठ रहे हैं
और तो और तैर रहे हैं

तुम्हारी दी हुई सभी किताबें हैं
अब रेगिस्तान और पर्वतमालाएँ हैं
सूरज हैं सब किताबे और हैं दिगन्त ...

सुनो, आज ह मेरी लाइब्रेरी देखस्ने मेरे दोस्त आ रहे हैं
जानने के लिए कि मैं पढ़ रहा हूँ कि नहीं
बताओ तुम्हीं क्या दिखाऊँगा मैं उन्हें
किस तरह खड़ा हो पाऊँगा
उनके सामने ?

'''बांग्ला से अनुवाद : पवन साव'''
</poem>
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