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फुलझड़ी / अशोक शाह

936 bytes added, 21:48, 20 जनवरी 2023
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|रचनाकार=अशोक शाह
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धरती के सुदूर देहरी पर
रखा जलता हुआ दीया
देखा प्रकम्पित प्रकाष में
अनापेक्षित
चींटियाँ लौट रही थीं घर
पंक्तिबद्ध
मानो पृथ्वी के मजदूर
लपक रहे हो घर
भरते जल्दी-जल्दी डेग
नहीं जानता
इस दीपावली के शुभ मुहूर्त में
पहँुच पाँएगें घर
लिए हाथों में एक फुलझड़ी
अवनि की आखिरी छोर पर खडे़
प्रतिक्षारत
अपने मासूमों के लिए
 
-0-
 
</poem>