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|रचनाकार=प्रमोद शर्मा 'असर'
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<poem>
बेशक ख़राब दिखती हो हालत ग़रीब की ।
कपड़ों से मत लगाना तू क़ीमत ग़रीब की ।।

लाये अमीर-ए-शहर को जब दफ़्न के लिए,
हँसने लगी पड़ोस में तुर्बत ग़रीब की ।

टूटी है छत दिहाड़ी भी मिलती है रोज़ कब ?
बारिश नहीं ये आई है शामत ग़रीब की ।

जो तय हुई थी उससे भी कम दे रहा है क्यों ?
ख़ैरात मत समझ ये है उजरत ग़रीब की ।

तू भी कनाअतों का सबक़ सीख जायेगा ,
दो दिन करे जो शौक से क़ुर्बत ग़रीब की ।

हीरे-जवाहिरात न कुछ माल-ओ-ज़र नसीब,
मेहनत, ईमानदारी है दौलत ग़रीब की ।

मँहगी पड़ेगी तुझको बताता है ये 'असर',
सस्ती कहीं समझ ली जो अस्मत ग़रीब की ।
</poem>