नवें दशक का यथार्थ, जिसमें सत्ता के लिए राजनैतिक भ्रष्टाचार का विकल्प ख़ुद राजनैतिक भ्रष्टाचार ही हो गया है। राजनीति जब इस स्तर की अनैतिकता में गहरे उतर जाती है, तो सामाजिक स्थिति विकृत हो जाती है। सामान्य जन में अन्धविश्वास घर करने लगता है और आदमी अशरीरी-धर्म और ईश्वर में सहारे खोजने में लग जाता है, जो कुण्ठित व अवसादजीवी वर्तमान समाज की बुद्धि पर तक्षक की तरह कुण्डली मारकर बैठ जाता है।
साँप बजाते बाँसुरी, मच्छर गाते गीत, सत्ता की कुलटा हंसी, काले सच की जीत ।
यह स्थिति आकस्मिक नहीं, सन १९४७ में मिली समझौते की आज़ादी की देन है। फलतः आठवें दशक तक आते-आते शासन-सत्ता और व्यवस्था से भारतीय जन-मानस का मोहभंग हो चुका था ।
इन्हीं दिनों सम्पूर्ण विश्व में द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन यानी मार्क्सवाद को स्वयंभू मनीषियों द्वारा कालातीत कहा जाने लगा था। यह मानवता के लिए एक ख़तरनाक भ्रम है. इसलिए कि पूँजीवादी उत्पादन पद्धति विलासी वर्ग के हितों का पोषण करती है ।
मेरा निश्चित मत है किबीसवीं सदी का यह अन्तिम दशक भयग्रस्त पूँजीवादी-सामन्ती व्यवस्था की स्थिरता क़ायम रखने के साम्राज्यवादी मंसूबों के विपरीत विश्व सामान्य जन द्वारा इस व्यवस्था को बदलने की उत्कट आँकाक्षा के साथ-साथ दिनोंदिन बढ़ता आक्रोश इस अन्तिम दशक का मुख्य स्रोत है। यही कारण है कि विश्व की साम्राज्यवादी शक्तियाँ, अनेक असंगतियों के बावजूद साम्यवादी विचारधारा पर आक्रामक हैं। अपने देश की उथल-पुथल भी इसी का एक अंग है। –आशा है कि ’लाल पंखों वाली चिड़िया’ की कविताएँ मेरे विचारधारात्मक सरोकारों को निरन्तर व्यक्त करती रहेंगी। इन्हीं शब्दों के साथ ... !
शील
128-249 के० ब्लॉक, किदवई नगर,
कानपुर - 208011 (उ० प्र०)
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