नवें दशक का यथार्थ, जिसमें सत्ता के लिए राजनैतिक भ्रष्टाचार का विकल्प ख़ुद राजनैतिक भ्रष्टाचार ही हो गया है। राजनीति जब इस स्तर की अनैतिकता में गहरे उतर जाती है, तो सामाजिक स्थिति विकृत हो जाती है। सामान्य जन में अन्धविश्वास घर करने लगता है और आदमी अशरीरी-धर्म और ईश्वर में सहारे खोजने में लग जाता है, जो कुण्ठित व अवसादजीवी वर्तमान समाज की बुद्धि पर तक्षक की तरह कुण्डली मारकर बैठ जाता है।
साँप बजाते बाँसुरी, मच्छर गाते गीत, सत्ता की कुलटा हंसी, काले सच की जीत ।
यह स्थिति आकस्मिक नहीं, सन १९४७ में मिली समझौते की आज़ादी की देन है। फलतः आठवें दशक तक आते-आते शासन-सत्ता और व्यवस्था से भारतीय जन-मानस का मोहभंग हो चुका था ।