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09:21, 20 मई 2023 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=ओम निश्चल
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<poem>
जब मर रहा संसार हो, ईश्वर तुम्हें फ़ुर्सत न दे
जब लुट रहा घर बार हो, ईश्वर तुम्हें फ़ुर्सत न दे
तुम अपने ही एकान्त में सामान बन जीते रहो
घर में घुसा बाज़ार हो, ईश्वर तुम्हें फ़ुर्सत न दे
इस व्यस्तता के दौर में, कैसा सुकूँ क्या गुफ़्तगू
कामों का यों अम्बार हो, ईश्वर तुम्हें फ़ुर्सत न दे
मसरूफ़ तुम इतने रहो दुनिया के कारोबार में
सम्मुख तुम्हारा यार हो, ईश्वर तुम्हें फ़ुर्सत न दे
केवल समीकरणों से जीवन का सफ़र करते रहे
तुम भी बड़े फ़नकार हो, ईश्वर तुम्हें फ़ुर्सत न दे
गिनते रहो, बस, फ़ायदे लेकिन तुम्हारी आत्मा
रुसवा सरे - बाज़ार हो, ईश्वर तुम्हें फ़ुर्सत न दे
</poem>