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13:56, 4 जुलाई 2023 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रूपम मिश्र
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<poem>
तुम आए भी न थे
और मैं एक दिन तुम्हारे जाने का शोक मनाने लगी
पीड़ा जाने कहाँ से उठी थी आवेग इतना कि
फफक कर रो पड़ी
जैसे विदा का पहर हो
और तुम अभी - अभी उठ कर चले गए
मैं हाथ थामकर तुम्हें रोक न पाई
जबकि यथार्थ में तुम कभी इस तरफ़ आए ही नहीं हो
तब से मैं सोच रही हूँ क्या तुम आए थे
या मैंने कभी मन के सारे सहन झरोखों को
खोलकर नहीं देखा
हो सकता है किसी महकी - बहकी शाम में
तुम आ गए थे यहाँ
और मैं उस साँझ भी कोई दिया ढूँढ़ रही थी
छूट जाने की उस खला में निढाल पड़ी रही दिन चढ़े तक
दुख की ऐसी नींद कि जैसे जान ही न हो देह में
तभी एक अकतीत - सा सवाल चित में उठा
तुम आए ही कब थे
जो मैं तुम्हारे जाने का शोक मना रही हूँ
कोई बाक़ी रह गई अहक थी वो जो आत्मा में
एक दिन सीझ गई थी
वो जीवन में एक बार का मरना क्या कम था
जो बार-बार मरने की लत लग गई है ।
</poem>
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