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चलू बाँटी / दीपा मिश्रा

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कमला कोसी
लखनदेईक धारा सन
बहैत मैथिल स्त्रीक जीवन
समयक ताप झेलैत
कहुखन सुखा जाइत अछि
त' कहुखन गादि भेल
अपन विवशताक संग
ताकैत रहैत अछि
जे कहिया तक ?
देखब एहेन नै हुए
जे कमलाक पानिकेँ
बान्हिकेँ रखबामे अहाँ
असमर्थ भऽ जाए
कोशीकेँ त' ओहुना
शोक कहल जाइए
ओ प्रचंड आवेग
यदि उत्पन्न भेल
त' की बचत, की भँसियायत
सोचबाक लेल समयो नै भेटत
नदी मातृक जेहि भूमि पर
गर्व छल किंवा एहेन नाहि
जे ओतयसँ नदी
एकबेर अप्पन
प्रचंड रूप देखाकेँ
सबकिछु लील
हरदम लेल विलुप्त भऽ जाए
भाषा अहूँक ओतबे
जतेक हमर
तैं मानक अभिलाषा
सेहो आधे राखू
आधा जकर छैक
ओकरा लग रहय दियौ
ओहुना जनमैत देरी त'
मैथिल जे शब्द
सबसँ पहिने सुनैत अछि
ओ थिक बँटवारा
त' चलू आइ बाँटी अपना सब
ओ सब किछु
जकर कहियो बाँट नै भेल
ने साहित्य, ने गाम,
ने घर, ने जमीन
जे कहियो स्त्रीक नाम नहि भेल
एकटा नहि कतेको सीता
न्याय लेल प्रतीक्षारत छथि
</poem>
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