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'काम बन्द' की तख़्ती टाँगे
रोज़ हुई हुईं हड़तालें,
उस पर बढ़ती महँगाई ने
पतली कर दी दालें,
कई कई दिन उसे कहीं भी
मिलती नहीं दिहाड़ी
दारू भी तो नहीं ,
कहाँ दुख बाँटे रामभजन ।
</poem>
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