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|रचनाकार=विनीत मोहन औदिच्य
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विस्तृत खंडहरों के मध्य में मैं आनंदित हूँ होता
लोग देखते हैं तुम्हारे ध्वस्त काले साम्राज्य को
व्यर्थ ही तुम्हारी लहरें टकराकर आंदोलित करती शांत तटों को
जहाँ मनुज का अहं तुम्हारे ज्वार पर वक्र भृकुटी करता ।

गहरा धरातल लिए पिरामिड अपना बदलते स्थान
प्रभावहीन हो चला है तुम्हारा पुराना ऊर्जावान प्रवाह
लूसियाना के मंदिर प्रदर्शित करते हैं संग्रह अथाह
स्तंभों और बरामदों में गर्वीला झलकता है मान ।

नहीं होता कम आनंद जब लेकर शरण तुम्हारे तूफानों की
वसुंधरा को देखा वक्ष से अकूत संपदा उगलते हुए
विशालकाय प्रस्तरों में बेजोड़ शिल्पकला आकारों की ।

अक्सर किया है मैंने तुम्हारा उपहास टहलते हुए
जगमगाते दरबार में जहाँ जाग्रत है आत्मा देवी की
जहाँ सौंदर्य से होता स्तब्ध ईश्वर भी कसमसाते हुए ।।
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