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लौह-यात्रा / हरीशचन्द्र पाण्डे

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<poem>
अन्न ही नहीं उगाया जाता
धरती पर लोहे की कीलें भी उगाई जाती हैं

उन्हीं के लिए जो अन्न उगाते हैं

कीलें, हलब्बी-हलब्बी बीहड़
पृथ्वी की कक्षा से बाहर जाने को उद्यत सी

भले ही शरीर में धँसने से रह गईं
पर आत्मा में धँस गईं गहरे ।

बहुत गहराई में छुपे हैं लौह अयस्कों के भण्डार
एक लौह-यात्रा यह भी
मज़दूरों से किसानों तक की

फ़सल एक धैर्य का नाम है बीज से बालियों तक
कितना समय लगता है कीलों को ढालने में

काश ! ठीक उलटकर रख दी गई होती वे कीलें
धरती का बंजरपन चला गया होता
दिमागों का भी ।
</poem>
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