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<poem>
कुछ हिसाबी तो हुए इश्क़ भी करने वाले
ख़ूब जीते हैं सनम आप पे मरने वाले

हम हक़ीक़त से रिहा आप तसव्वुर के असीर
इस फ़साने में हमीं दो हैं निखरने वाले

ज़िन्दगी क्या है सतह पे ही छपाछप कीजे
डूब जाते हैं यहाँ तह में उतरने वाले

चश्मे-बातिन से भला कौन सी दुनिया देखें
आइना ख़ुद को किया ख़ुद ही सँवरने वाले

अब जो क़ुदरत ने मशीनों से हिदायत पाई
अब नहीं ख़ाक से इनसान उभरने वाले

रात से लड़ के सहर ला के बुझे हैं ये चिराग़
ये तो सूरज की इबादत नहीं करने वाले

वक़्त ठिठका सा खड़ा ख़ल्क़ के मज़मूँ पढ़कर
हम कहाँ वक़्त के अब साथ ठहरने वाले

'''शब्दार्थ'''
तसव्वुर – कल्पना (imagination); असीर – क़ैदी (prisoner); चश्मे-बातिन – अन्तर्दृष्टि (inner eye); ख़ल्क़ – लोग, सृष्टि (people, creation)
</poem>
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