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पँख मारती हैं पनडुब्बियाँ । पार्कों में पगडण्डियों पर
छुपते हुए मकड़ी के जाल और
अन्तिम बायसिकल के पहियों के छड़ों से
झरती हुई मद्धिम-सी रोशनी ।
सुनो, क्या कहना चाहती है,
विदा के लिए जाकर दस्तक दो द्वार पर आख़िरी मकान के,
एक स्त्री, जो रहती है उसमें,
उम्मीद नहीं करती कि ब्यालू पर आएगा पति,
वह मेरे लिए खोलेगी द्वार
और कोट से लिपट मेरे सीने पर गड़ा अपना मुख
हँसती हुई ओंठ बढ़ाएगी वह मेरी ओर
फिर सहसा शलथ पड़्ती, अन्तस के कोर
को समझ लेगी, खेतों में शरद की पुकार
हवा के बिखरते हुए बीज, परिवारों का टूटना,
अभी भी जवान,काँपती ठण्ड में,
सोचा करेगी वह
कैसा है खेल कि और तो और फलता है सेब का वृक्ष भी
बियाती है भूरा बछड़ा बूढ़ी गाय
जीवन पनपता है ओक के खोखल में,
चरागाहों में, मकानों में, अन्धड़ गुर्राते हुए जंगल में,
पकती हुई बालियों के संग और छाया की तरह पवनमुर्ग के साथ,
आँसू बहाएगी वह, इच्छाहत
बुदबुदाएगी वह, किसके लिए हैं
ये हाथ, ये छातियाँ ? क्या कोई मतलब है
जैसे मैंने जीया, वैसे जीये जाने का ?
चूल्हा सुलगाने, दिनचर्या दुहराने का ?
मैं उनको अपने वक्ष से लगा लूँगा
मैं, जो ख़ुद नहीं ढूँढ़ पाया हूँ अर्थ इस जीने का —
बाहर, पहले हिमपात में,
खेत बदलते हैं अलुम्युनियम में
खेतों के पार, अन्धकार, भूरी, मटमैली
मेरे पैरों की छाप, निकल जाती है दूर
स्टेशन की तरफ़, चुपचाप ।
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : [[श्रीकांत वर्मा]] '''