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|संग्रह=नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा / केशव तिवारी
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<poem>
हो सकता उस कोने
तक भी न जा पाऊँ
जहाँ मूसर काण्डी चकिया पड़े हैं

हो सकता है उस पच्छू के
कोने तक भी न जा पाऊँ
जहाँ हड़िया में हाथ डालते
डँस लिया था करिया नाग

जाना तो बहुत - बहुत कोने - अन्तरे था
उस परछाईं तक भी
जो कब से भटक रही है
माटी की दीवारों पर

जाना तो बहुत - बहुत कोने - अन्तरे था
पर ये घर है कि खभार

कहीं चीज़ें अन्धेरे में पड़ी हैं
कहीं चेहरे ।
</poem>
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