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<poem>
काँटे -काँटे देह हो गई,
रेशा-रेशा फूल हो गए ।
राजपथों ने ठुकराया तो,
हम जंगली बबूल हो गए ।

किससे कहते पीड़ा मन की,
क्यों मैंने वनवास चुना है,
इच्छाओं को छोड़ तपोवन,
ये कठोर उपवास चुना है ।
धारा के संग बह न सके तो,
नदिया के दो कूल हो गए ।

अनचाहे उग आते भू पर,
नहीं किसी ने रोपा मुझको,
क्रूर समय ने सदा मरूथलों
के हाथों ही सौपा मुझको ।
ऐसे गए तराशे हर पल,
पोर -पोर हम शूल हो गए ।

रहे सदा ही सावधान हम,
मौसम की शातिर चालों से,
इसीलिए हैं मुक्त अभी तक,
छद्म हवाओं के जालों से ।
इस जग ने इतना सिखलाया,
अनुभव के स्कूल हो गए ।

जब-जब बढ़ती तपन हृदय की,
खिलते फूल मखमली पीले,
भरते एक हरापन मन में,
रंग धूप के ये चटकीले ।
सुधियों ने जिसको दुलराया
ऐसी मीठी भूल हो गए ।

भूल सभी सन्ताप हृदय के,
रहे पथिक को छाँव लुटाते,
सांझ लौटते विहगो के संग,
गीत रहे जीवन के गाते ।
ढाल लिया ख़ुद को कुछ ऐसा,
हर युग के अनुकूल हो गए ।
</poem>
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