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{{KKRachna
|रचनाकार=मधु शुक्ला
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<poem>
आँखों में तस्वीर तुम्हारी भर कर ग़ज़ल कहूँ ।
अक्षर- अक्षर फिर से तुमको पढ़कर ग़ज़ल कहूँ ।

गढ़ूँ नए कुछ शब्द तुम्हें परिभाषित करने के,
घिसे-पिटे अर्थों की ज़द से बढ़कर ग़ज़ल कहूँ ।

फट जाती है चादर अक्सर दाग़ छुड़ाने में,
छोड़ फ़िक्र दुनिया की, दिल की सुनकर ग़ज़ल कहूँ ।

लगा पलटने समय आज फिर यादों के पन्ने,
सुधियों की पुस्तक सिरहाने धरकर ग़ज़ल कहूँ ।

कहाँ रोज़ आता है मौसम गीतों - ग़ज़लों का,
इन ख़ुशनुमा बहारों के सँग बहकर ग़ज़ल कहूँ ।

प्यार भरे कुछ ख़्वाब गुलाबी भरकर आँखों में,
इस बेज़ान समय से दूर निकलकर ग़ज़ल कहूँ ।
</poem>
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