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यही इन्तेहाँ थी मुहब्बत की जानम,
तुम्हारे मैं तेरे लिए ही तुम्हीं तुझी को दगा दूँ।
बिखेरी है छत पर यही सोच बालू,
मैं सहरा का इन बादलों मेघावली को पता दूँ।
</poem>
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